डोमकच

डोमकच स्त्री-पुरुष के रागात्मक संबंधों एवं सुखद दांपत्य की कलात्मक अभिव्यक्ति है। यहां न पुरुषत्व के अहं का भय होता है, न ही लज्जाशील होने की झूठी जरूरत। यहां बस औरतें होती है और होती हैं उनकी उन्मुक्तता। यहां वे खुलकर सांसें लेती हैं, हंसती हैं। गाती हैं चुहल करती हैं। वह भी बगैर पुरुषों की अनुमति के।

दरअसल ‘डोमकच’ बिहार की एक ऐसी परंपरा है जो औरतों का मनोरंजन करने के साथ उनके अंदर की कुंठा को बाहर निकाल कर उनमें नया उत्साह, आत्मविश्वास पैदा करती है। इसके माध्यम से हर पुरानी पीढ़ी आने वाली पीढ़ी को दांपत्य जीवन जीने का तरीका बताती है। जबकि, इसका व्यावहारिक पक्ष यह है कि बारात में घर के सभी पुरुषों के चले जाने के बाद घर की सुरक्षा के लिए औरतों द्वारा मनोरंजन युक्त रतजगा का कार्यक्रम है- डोमकच।

यह परंपरा कितनी पुरानी है कहा नहीं जा सकता। किंतु, इसमें जिस तरह की क्रीड़ाएं की जाती हैं उससे स्वत: सिद्ध होता है कि जबसे हिंदू धर्म में ‘विवाह’ नामक संस्कार अस्तित्व में आया होगा, इस प्रथा का भी उसी समय से आरंभ हुआ होगा। विवाह-संस्कार रात में होने से वर पक्ष के घर भी रात्रि शयन अशुभ माना जाता है। रात्रि जागरण के लिए मनोरंजन जरूरी था। ‘डोमकच’ का जन्म यहीं से हुआ जो आज तक उसी पारंपरिक रूप में चला आ रहा है।

‘डोमकच’ भावी पति-पत्नी के सुखद दांपत्य की शुभकामना है। इसलिए इसमें उन सभी दृश्यों को संयोजित किया जाता है जिसे सुखद दांपत्य का पर्याय माना जाता है। इन दृश्यों के कारण ‘डोमकच’ कभी-कभी अश्लीलता की परिभाषा के दायरे में आ जाता है, किन्तु वर्तमान समय में यह सुरक्षित यौन संबंधों एवं यौनजनित बीमारियों से बचाव के लिए आवश्यक भी है। वैसे भी ‘डोमकच’ दांपत्य जीवन की सही शिक्षा के लिए जरूरी परंपरा रही है। बच्चियों से लेकर युवतियों तक को इस विषय का प्रारंभिक ज्ञान डोमकच से ही मिलता है।

बिहार जैसे राज्य में ‘डोमकच’ एक ऐसा पारंपरिक माध्यम है जो दांपत्य जीवन की शिक्षा बड़े ही दिलचस्प अंदाज में लड़कियों को देता है। किशोरी, युवती सभी बड़े चाव से इसे देखती, समझती और खुशियां बटोरती हैं। डोमकच में औरतें ही पुरुष का वेश धारण कर अभिनय करती हैं। इसकी कहानी पुरुष-स्त्री के विवाह से शुरू होकर संतान प्राप्ति के बाद सोहर एवं मंगल कामना गाने से खत्म होती है। इसे एक प्रकार की नृत्य-नाटिका कहा जा सकता है यहां गीत-नृत्य एवं प्रतीकों के सहारे दृश्यबंध बनाए जाते हैं।

‘डोमकच’ की खास बात यह है कि इसमें स्त्रियों को इतनी स्वतंत्रता रहती है कि बारात नहीं जाने वाले पुरुषों के साथ ये इतनी चुहल करती हैं कि वे भाग खड़े होते हैं। गांव में कई पुरुष बारात नहीं गया हो तो उसकी शामत आ जाती है। कभी-कभी इसकी अति भी हो जाती है, जिसके गलत परिणाम निकल आते हैं।

बहरहाल, डोमकच के बहाने ऊच-नीच के सारे भाव तिरोहित हो जाते हैं और गांव भर की औरतें डोमकच के नाम पर गांव भर से अनाज या नकद इकट्ठा करती हैं जिसका प्रसाद बनाया जाता है। यह प्रसाद वधु-आगमन के बाद सारे गांव में बांटा जाता है.

 ‘डोमकच’ आज लुप्तप्राय हो रही है। तथाकथित आधुनिकता ने इस परंपरा पर भी आघात किया है। शहरों में अब डोमकच नहीं होते हैं। क्योंकि, बारात में स्त्रियां भी जाने लगी हैं। यहां पैसे लेकर डोमकच करने वाले दल से डोमकच कराकर लोग अपनी परंपरा को निभाने की खानापूर्ति कर लेते हैं। जबकि नयी पीढ़ी इस परंपरा का नाम तक नहीं जानती। गांवों एवं कस्बों में यह परंपरा अभी भी बची हुई है, किन्तु वहां की तथाकथित उच्च तबके की औरतें स्वयं डोमकच करने में अपनी हेठी समझती हैं।  यहां भी डोमकच करने वाले दल को बुला लिया जाता है। ऐसे ही एक दल की मुखिया पार्वती कहती है कि एक दशक पहले तक डोमकच की बहुत मांग थी।
अब जैसे-जैसे टीवी, सिनेमा फेल रहा है लोग इससे अलग हट रहे हैं। आज अपनी परंपरा ‘डोमकच’ के बजाए ‘लेडीज संगीत’ कार्यक्रम किए जाते हैं। जहां फिल्मी गानों की धुन पर औरतें मटकती हैं। इससे सिर्फ मनोरंजन दिखावा बनकर रह जाता है।

 गांव के गरीब तबके में ‘डोमकच’ परंपरा आज भी प्रचलित है। इनके घरों में लोकरस की चाशनी से पगे डोमकच के गीतों को घर की औरतें जब झूम-झूम कर गाती हैं तो राहगीरों तक के पांव ठिठक जाते हैं। गीतों के साथ औरतों की ठिठोलियां ‘डोमकच’ की मस्तियों को दोगुना बना देती हैं।

परंतु गांव या शहर दोनों जगहों की नयी पीढ़ी इसे अपनाना नहीं चाहती। साक्षरता दर जितनी बढ़ रही है, अपनी परंपराओं के प्रति हमारे समाज का लगाव उतना ही घट रहा है। पढ़े-लिखे होने का मिथ्याभिमान नयी पीढ़ी को परंपराओं से विमुख कर रहा है। वे इसे अपनाने वालों को हेय दृष्टि से देखते हैं।

पाश्चात्य देशों के सांस्कृतिक आक्रमण ने टीवी चैनलों, एवं अन्य मीडिया माध्यमों से गांवों-कस्बों की परंपराओं को अक्षुण्ण् नहीं रहने दिया है। दूसरी तरफ सरकार भी इसकी अनदेखी करते हुए ग्लोबलाजेशन के सुनहरे स्वप्न में खो चुकी है। वर्तमान में जिस प्रकार बाजार-प्रेरित सभ्यता का विस्तार हो रहा है, आश्चर्य नहीं कि आनेवाले दिनों में ‘डोमकच’ जैसी परंपराएं बिल्कल भुला दी जाएं।
आज जब सेक्स एजुकेशन की इतनी चर्चा हो रही है तो जरूरी हो जाता है कि नयी पीढ़ी परंपराओं की अहमियत समझे। इससे हमारी कई समस्याओं का समाधान निकल सकता है। तब शायद सांस्कृतिक राष्ट्र भारत की विशेषता बची रह सकती है। अन्यथा, सेक्स शिक्षा के नाम पर तैयार होने वाला नई पढ़ाई का माडल मूल्यहीन समाज ही तैयार करेगा।
..............स्वयम्बरा
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Comments

Bandmru said…
बात बाहानो की नहीं हैं या फ़िर फुर्सत की वो तो सिर्फ़ दिखावा हैं आधुनिकता के इस दौर में अगर कोई ये सोचे की मैं आधुनिकता से दूर रहकर पुराणी परम्परा को लेकर चलूँ तो हमारा समाज उसे पागल की उपाधि दे देगा । इस में फुर्सत या बहानो की बात करके हम अपनी कमजोरी को छुपा तो सकते हैं लेकिन परम्पराओं से दूर नहीं जा सकते । सुई धागा का रिश्ता हैं समाज और परम्पराओं में दूर जाने का सवाल ही नहीं पैदा होता । किसी न किसी रूप में हम उनको आप्नाते जरुर हैं हाँ ये अलग बात हैं की पैसे वाले शान में कमी नहीं आये इस लिए पैसे के बल पर टीम बुला कर परम्पराओं का निर्वाह कर लेतें हैं । जहान तक मेरा मानना हैं की आधुनिकता के इस दौर में लोगों में परम्परा निभाने की शैली बदली हैं परम्परा को लोग भूलें नहीं हैं । धन्यवाद ! रचना काफी सुंदर हैं लिखतें रहें ! कैसी रही हमें जरूर लिखे ।
Nilesh upadhyay said…
हमलोगों के यहाँ जलुआ कहा जाता है।