ज्ञान्ति : जिन्दगी अब भी 'खूबसूरत' है
नाम
है ज्ञान्ति....उम्र करीब बीस साल...घर-घर में चौका-बर्तन करके अपना और
अपने तीन बच्चों का पेट पालती है...आँखों में एक ही सपना संजोये है कि
बच्चे पढ़-लिख जाएँ...उन्हें अच्छे संस्कार मिले...आप सोच रहे होंगे कि
इसमें नया क्या है... ऐसी कहानियों से तो रोज ही दो-चार होना पड़ता है
....पर जनाब, इस एक कहानी में जो जिजीविषा है वो हम भाषण देनेवालों में
नहीं....हम बोलते बहुत है पर जिन्दगी जब इम्तहान लेने लगती है तो हमारे
पसीने छुट जाते है...और यहाँ??? यहाँ तो कड़ी मिहनत, समाज के तीखे तेवरों के
बावजूद चेहरे से मुस्कराहट जाती ही नहीं...वो छम-छम करती आती
है....गुनगुनाती हुई घर के काम करती है और चली जाती है ...
पर यह सबकुछ जितना आसान, खूबसूरत, सुकून से भरा दिखता है उतना है नहीं...जानते है क्यूँ??? जनाब, वो एक विधवा है ... जवान भी ... ईश्वर ने खूबसूरती भी दोनों हाथो से लुटाई है....और ये सभी बाते उसके खिलाफ जाती है... kyunki चाहे लाख दावा कर ले पर रूढ़ियाँ और मानसिक विकृतियाँ अब भी हमें जकड़े हुए है ... समाज विधवा को हेय दृष्टि से देखता है...मांगलिक कार्यों में उसका होना अशुभ है तो दूसरी तरफ वह आसानी से उपलब्ध 'सर्वभोग्या' है..जैसे कि पुरुष (पति) के न होने पर स्त्री सड़क पर पड़ी वस्तु बन जाती हो ....सोचिये तो हम कहा चले आये है..21 सदी में है...स्त्री-पुरुष समानता की बाते जोर-शोर से हो रही है, पर समाज के किसी कोने में स्त्री-अस्मिता आज भी सिसकती रहती है...
खैर, छोडिये ...अब कहानी 'ज्ञान्ति' की ...बाल विवाह हुआ था , यही कोई 6 साल पहले..तब उसकी उम्र 14 साल की थी...(अब सरकार चाहे लाख दुहाई दे 18 साल से कम उम्र में लड़कियों की शादी अभी भी हो रही है, वैसे ही, जैसे कानूनन अपराध घोषित होने के बावजूद 'दहेज़' एक स्वीकृत परंपरा है) ..6 सालों में तीन बच्चे हुए..पति, कभी कमाता, कभी नहीं...पीने में सारे पैसे उडाता...नशे की हालत में पत्नी को मारना उसकी आदत थी.. फिर भी वो ज्ञान्ति का 'देवता' था (जैसा की हम भारतीय स्त्रिओं के होते है-पति परमेश्वर ??) ...और एक दिन 'पति' का 'अपनी मां' से झगडा हुवा..उसने जहर खा लिया और मर गया...
.
ज्ञान्ति की अबतक की जिन्दगी भी संघर्षरत थी पर पति के मरने के बाद समाज की नज़रें बदल गयी ...एक नए सच से परिचय हुआ...पति का दसवां भी नहीं हुआ कि 'देवर' ने अपना 'रंग' दिखाना शुरू कर दिया ...नियत बदल गयी...रात में उसके कमरे का दरवाज़ा खोलने का प्रयास करने लगा...ज्ञान्ति ने एक बार बहुत पूछने पर बताया -"दीदी, देवर के बुरा नज़र हमरा पर बा...ऊ कहता कि तहरा हमरे संगे रहे के बा ...सास भी विरोध नईखी करत...बाकिर हम ता लताड़ देले बनी...खूब बोलले बानी".
ज्ञान्ति के नहीं मानने पर देवर ने पंचायती (कुछ रिश्तेदारों को बुलाकर किसी बात पर संवाद करना) कर उसपर शादी का दबाव डाला... मैंने कहा कि शादी क्यूँ नहीं कर लेती?..तो ज्ञान्ति बिलख पड़ी ..उसने एक अजीब बात बताई, कहा -"दीदी हम बियाह कर लेती बाकि ऊ कहता कि हमर बेटीयन से ओकरा कोई मतलब ना रही, आ हमरो मतलब न रखे दिही ..बाकिर बेटा के अपना संगे राखी ..ता बताई कि हम आपन बेटी सब के कैसे पालब-पोसब...ओकरा सब के अनाथ जैसन कैसे छोड़ दिहब. हमरा नइखे करके बिअह..केतना लोग रहेला..हमहू रह लेब ...हमरा आपन बाल-बच्चा के लायक बनावे के बा...बस."
उसके बाद कि कहानी ये है कि शादी से इंकार करने के 'अपराध' में ससुराल ने उसका हुक्का-पानी बंद कर दिया है ...वह अलग रहती है ...सूरज उगने से पहले जाग जाना और सबके सोने के बाद बिस्तर पर जाना उसकी नियति बन चुकी है...अपने घर के काम-काज निपटा कर वह निकल जाती है अपनी 'कर्मभूमि' की ओर...पांच घरों में चौका-बर्तन करती है , जिसमे हमारा घर भी शामिल है...हाल में उसने मुझसे अपना नाम लिखने भर 'पढने' की इच्छा ज़ाहिर की है ...
...समाज विकृत इशारे करता है...प्रलोभन देता है ...आरोप भी लगाता है ...ज्ञान्ति कभी अनदेखा करती है कभी गालिओं की बौछार कर देती है...बार- बार उसे खुद को साबित करना पड़ता है ... ' परिश्रम' ही उसका एकमात्र संबल है ..और बच्चे जीने का आधार ... कठोर श्रम और उचित भोज़न के अभाव में वह अनीमिया, लो ब्लड प्रेशर जैसे रोगों को पाल चुकी है....वज़न दिनोदिन कम होता जा रहा है...पर मन की दृढ़ता बढती ही जाती है ...चेहरे कि कान्ति कम नहीं होती...उसके लिए जिन्दगी अब भी 'खूबसूरत' है...
पर यह सबकुछ जितना आसान, खूबसूरत, सुकून से भरा दिखता है उतना है नहीं...जानते है क्यूँ??? जनाब, वो एक विधवा है ... जवान भी ... ईश्वर ने खूबसूरती भी दोनों हाथो से लुटाई है....और ये सभी बाते उसके खिलाफ जाती है... kyunki चाहे लाख दावा कर ले पर रूढ़ियाँ और मानसिक विकृतियाँ अब भी हमें जकड़े हुए है ... समाज विधवा को हेय दृष्टि से देखता है...मांगलिक कार्यों में उसका होना अशुभ है तो दूसरी तरफ वह आसानी से उपलब्ध 'सर्वभोग्या' है..जैसे कि पुरुष (पति) के न होने पर स्त्री सड़क पर पड़ी वस्तु बन जाती हो ....सोचिये तो हम कहा चले आये है..21 सदी में है...स्त्री-पुरुष समानता की बाते जोर-शोर से हो रही है, पर समाज के किसी कोने में स्त्री-अस्मिता आज भी सिसकती रहती है...
खैर, छोडिये ...अब कहानी 'ज्ञान्ति' की ...बाल विवाह हुआ था , यही कोई 6 साल पहले..तब उसकी उम्र 14 साल की थी...(अब सरकार चाहे लाख दुहाई दे 18 साल से कम उम्र में लड़कियों की शादी अभी भी हो रही है, वैसे ही, जैसे कानूनन अपराध घोषित होने के बावजूद 'दहेज़' एक स्वीकृत परंपरा है) ..6 सालों में तीन बच्चे हुए..पति, कभी कमाता, कभी नहीं...पीने में सारे पैसे उडाता...नशे की हालत में पत्नी को मारना उसकी आदत थी.. फिर भी वो ज्ञान्ति का 'देवता' था (जैसा की हम भारतीय स्त्रिओं के होते है-पति परमेश्वर ??) ...और एक दिन 'पति' का 'अपनी मां' से झगडा हुवा..उसने जहर खा लिया और मर गया...
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ज्ञान्ति की अबतक की जिन्दगी भी संघर्षरत थी पर पति के मरने के बाद समाज की नज़रें बदल गयी ...एक नए सच से परिचय हुआ...पति का दसवां भी नहीं हुआ कि 'देवर' ने अपना 'रंग' दिखाना शुरू कर दिया ...नियत बदल गयी...रात में उसके कमरे का दरवाज़ा खोलने का प्रयास करने लगा...ज्ञान्ति ने एक बार बहुत पूछने पर बताया -"दीदी, देवर के बुरा नज़र हमरा पर बा...ऊ कहता कि तहरा हमरे संगे रहे के बा ...सास भी विरोध नईखी करत...बाकिर हम ता लताड़ देले बनी...खूब बोलले बानी".
ज्ञान्ति के नहीं मानने पर देवर ने पंचायती (कुछ रिश्तेदारों को बुलाकर किसी बात पर संवाद करना) कर उसपर शादी का दबाव डाला... मैंने कहा कि शादी क्यूँ नहीं कर लेती?..तो ज्ञान्ति बिलख पड़ी ..उसने एक अजीब बात बताई, कहा -"दीदी हम बियाह कर लेती बाकि ऊ कहता कि हमर बेटीयन से ओकरा कोई मतलब ना रही, आ हमरो मतलब न रखे दिही ..बाकिर बेटा के अपना संगे राखी ..ता बताई कि हम आपन बेटी सब के कैसे पालब-पोसब...ओकरा सब के अनाथ जैसन कैसे छोड़ दिहब. हमरा नइखे करके बिअह..केतना लोग रहेला..हमहू रह लेब ...हमरा आपन बाल-बच्चा के लायक बनावे के बा...बस."
उसके बाद कि कहानी ये है कि शादी से इंकार करने के 'अपराध' में ससुराल ने उसका हुक्का-पानी बंद कर दिया है ...वह अलग रहती है ...सूरज उगने से पहले जाग जाना और सबके सोने के बाद बिस्तर पर जाना उसकी नियति बन चुकी है...अपने घर के काम-काज निपटा कर वह निकल जाती है अपनी 'कर्मभूमि' की ओर...पांच घरों में चौका-बर्तन करती है , जिसमे हमारा घर भी शामिल है...हाल में उसने मुझसे अपना नाम लिखने भर 'पढने' की इच्छा ज़ाहिर की है ...
...समाज विकृत इशारे करता है...प्रलोभन देता है ...आरोप भी लगाता है ...ज्ञान्ति कभी अनदेखा करती है कभी गालिओं की बौछार कर देती है...बार- बार उसे खुद को साबित करना पड़ता है ... ' परिश्रम' ही उसका एकमात्र संबल है ..और बच्चे जीने का आधार ... कठोर श्रम और उचित भोज़न के अभाव में वह अनीमिया, लो ब्लड प्रेशर जैसे रोगों को पाल चुकी है....वज़न दिनोदिन कम होता जा रहा है...पर मन की दृढ़ता बढती ही जाती है ...चेहरे कि कान्ति कम नहीं होती...उसके लिए जिन्दगी अब भी 'खूबसूरत' है...
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