खुश रहो न !




कई दिनों की बारिश के बाद बादल एकदम चुप से थे..न गरजना न बरसना ... ठंडी हवाएं जरुर रह-रह कर सहला जाती थी...धूली, निखरी प्रकृति की सुन्दरता अपने चरम पर थी ....मुझे पटना जाना था ...ट्रेन में खिड़की वाली सीट मिली (मेरा सौभाग्य )...हमारा सफ़र शुरू हुआ .... दूर तक पसरे हरे-भरे खेत, पेड़ो की  कतारें, बाग़-बगीचे दिखने लगे....मैं  बिलकुल 'खो' सी गयी थी ...कि एक जगह ट्रेन 'शंट' कर दी गयी...माहौल में ऊब और बेचैनी घुलने लगी.. बचने के लिए इधर-उधर देखना शुरू किया कि 'निगाहे' पटरी के पार झाड़ियों में कुछ खोजती औरत पर गयी.....इकहरा बदन ..सांवली रंगत...वह बेहद परेशान दिख रही थी ...पास ही बैठा उसका छोटा सा बच्चा रोये जा रहा था, पर वह, अपनी ही धुन में थी ...मुझे कुछ अजीब सा लगा इसलिए  उन्हें ध्यान से देखने लगी..अचानक उसके हाथ में एक सूखी टहनी नज़र आयी...अब उसके चेहरे पर राहत थी...धीरे-धीरे उसने कई लकड़ियों को इकट्ठा किया ...उसका गठ्ठर बनाया..बच्चे को उठाया और चली गयी....

ट्रेन थोड़ी आगे बढ़ी तो देखा चार-पांच छोटी बच्चियां सिर पर लकड़ियों का गठ्ठर उठाये हंसती -खिलखिलाती चली जा रही थी...बाल बिखरे..ढंग के कपडे नहीं पर उदासियों को ठेंगा दिखाती वो अपने में मगन थी .... सूखी लकड़ियाँ इन लोगो के चूल्हे  की आग  थी, जिसपर पूरे परिवार का भरपेट खाने का सपना पकता होगा ...इसके लिए दर-दर का भटकना भी उनकी मुस्कानों को, हौसलों को कम नहीं कर सकता ...

उस औरत को वहां पसरी गंदगी, रोता बच्चा और झाड़ियों में छिपे विषैले जीव का डर रोक नहीं पाया ...और ये बच्चियां  अपने 'बचपन' में ही 'बड़ी' हो गयी..अभावो में खिलखिलाना सीख लिया ....

इस बरसात में लकड़ियाँ ना मिले तो..... तो उन्हें 'भूखा' ही रह जाना पड़ेगा ...या पानी से ही पेट भर कर तृप्त हो जाना पड़ेगा और गर कई दिनों तक बारिश होती रहे तो ??? ...पर उन्हें परवाह कहा ...

और एक 'हम' है जो 'गैस' ख़त्म हो जाने पर आसमा सिर पर उठा लिया करते है...कुकर, रेफ्रीजेरेटर, अवन के बिना हमारा काम ही नहीं चलता.. हर बात पर हाय-तौबा मचाते है..सारी सुविधाओं के होने के बावजूद असंतुष्ट रहते है ... असल में इस भागती हुई जिन्दगी में कुछ पल ठहरकर, रूककर सोचने की 'जरुरत' है कि 'हमारी जरूरते' जिस अनुपात में बढ़ रही है 'खुशियाँ'  उसी अनुपात में घटती नहीं जा रही है?? जरा सोचिये!

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धन्यवाद .... आभार ....