ये कैसी शिक्षा व्यवस्था ??

जब छोटी थी तब 'माँ ' अक्सर अपने बचपन की कहानी सुनाया करती ...वो बताती कि प्राईमरी स्कूल में उन्हें 'बोरा' (थैलियाँ जिनमे अनाज रखे जाते है ) लेकर जाना पड़ता था ...असल में उनमें बेंच नहीं थे ...ऐसे में 'बोरा' बैठने के काम आया करता....इन किस्सों को सुनकर मैं हैरान हो जाती ..क्योंकि मेरे लिए ये अनोखी बात थी...स्कूल, वो भी बिना बेंच के !! ...और पढाई बोरा पर बैठकर ??....अपनी माँ पर तरस आता, बुरा भी लगता और स्कूल की व्यवस्था पर हंसी भी आती ..कभी -कभी माँ मुझे डांटते हुए बोलती कि पढ़ोगी नहीं तो बोरा वाले स्कूल में नामांकन करा देंगे ...तब बहुत डर लगता ..हालाँकि उम्मीद नहीं थी कि ऐसा स्कूल अब भी होता होगा....

खैर... 'बाल महोत्सव' का आयोज़न के दौरान गांवों के स्कूलों के बारे में जाने-समझने का मौका मिला...शिक्षको और अभिभावकों से सुनने को मिला कि शिक्षा प्रणाली में घुन लग चूका है....कि शिक्षा पर सबसे ज्यादा खर्च किया जा रहा है, पर 'वहीँ ' सबसे ज्यादा लूट है..कि शिक्षक नियुक्ति में सबसे ज्यादा धांधली हुई है ... कि विद्या के घर में विद्या छोड़कर बाकि सबका बसेरा है..वगैरह-वगैरह...

ग्रामीण बच्चों की मांग पर इस बार बाल महोत्सव ब्लाक स्तर पर भी आयोजित किया गया ...पहला पड़ाव कुल्हरिया में था ... दूसरा पड़ाव बडहरा के गाँव पडरिया में स्थित मध्य विद्यालय में था ...यात्रा सुखद रही...बांध पर बनी सड़क...बगल में बहती गांगी नदी...वृक्षों की कतार .. दूर तक फैले हरे-भरे खेत ....और छोटे-छोटे बच्चों का साथ (जो हमारे साथ आरा से गए थे ) ने यात्रा का अहसास तक नहीं होने दिया ....बहुत खुश होकर हम विद्यालय में दाखिल हुए ...भवन देखा तो अजीब सा लगा...बहुत पुराना तो नहीं था पर जगह-जगह दरारें आ चुकी थी...हालाँकि प्रांगन में ढेर सारे पेड़ों को देखकर हम खुश हो गए...अब बच्चों के बैठने की बारी थी..इसलिए हमने क्लासरूम का जाएजा लेना चाहा ..एक कमरे में कदम रखा देखा एक तरफ बेंच रखे है और दूसरी तरफ जमीन पर बोरे बिछे हैं...दूसरे कमरे में गयी वहां भी यही हाल...तीसरे, चौथे, पांचवे कमरे में तो एक भी 'बेंच' नहीं था...बोरा भी नहीं था (हाँ भाई, आखिर कितना बोरा भला स्कूल खरीदेगा ??) इसलिए बच्चे उसे घर से लाते थे ...झटका लगा ...अबतक गाँव के स्कूलों के दुर्भाग्य की गाथा सुना करती थी, आज देख रही थी...अपने बचपन में इस स्थिति की कल्पना मात्र से कितना डरती थी पर यहाँ के बच्चे, रोज उसका सामना करते है ...और बाकी साल उसपर बैठ भी जाये पर जब ठण्ड अपने चरम पर होती होगी तब ?? मन भर गया ...महोत्सव का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया ...सोच में पड़ गयी कि 'माँ' के प्राईमरी स्कूल जाने के वर्ष के बाद से कितने साल गुज़र गए हैं , पर हालात अब भी ज्यों की त्यों हैं ....क्या यही है इक्कीसवी सदी ?? सुनती हूँ कि सरकार शिक्षा पर बहुत ज्यादा खर्च करती है...फिर इन स्कूलों की ऐसी बदहाली क्यूँ?
जब छोटी थी तब  'माँ ' अक्सर  अपने बचपन की कहानी सुनाया करती ...वो बताती कि प्राईमरी स्कूल में उन्हें  'बोरा' लेकर जाना पड़ता था ...असल में उनमें बेंच नहीं थे  ...ऐसे में  'बोरा' बैठने के काम आया करता....इन किस्सों को सुनकर मैं हैरान हो  जाती ..क्योंकि मेरे लिए ये अनोखी बात थी...स्कूल, वो भी बिना बेंच के !!   ...और पढाई बोरा पर बैठकर ??....अपनी माँ पर तरस आता, बुरा भी लगता और स्कूल  की व्यवस्था पर हंसी भी आती ..कभी -कभी माँ मुझे डांटते हुए  बोलती कि पढ़ोगी नहीं तो बोरा वाले स्कूल में नामांकन करा देंगे ...तब बहुत डर लगता ..हालाँकि उम्मीद नहीं थी कि ऐसा स्कूल अब भी होता होगा....

खैर... 'बाल महोत्सव' का आयोज़न  के दौरान गांवों के स्कूलों के बारे में जाने-समझने का मौका मिला...शिक्षको और अभिभावकों से सुनने को मिला कि शिक्षा प्रणाली में घुन लग चूका है....कि शिक्षा पर सबसे ज्यादा खर्च किया जा रहा है, पर 'वहीँ ' सबसे ज्यादा लूट  है..कि शिक्षक नियुक्ति में सबसे ज्यादा धांधली हुई है ... कि विद्या के घर में विद्या छोड़कर बाकि सबका बसेरा है..वगैरह-वगैरह...

ग्रामीण बच्चों की मांग पर इस बार बाल महोत्सव ब्लाक स्तर पर भी आयोजित किया गया ...पहला पड़ाव कुल्हरिया में था ... दूसरा पड़ाव बडहरा के गाँव पडरिया में स्थित मध्य विद्यालय में  था ...यात्रा सुखद रही...बांध पर बनी सड़क...बगल में बहती गांगी नदी...वृक्षों की कतार .. दूर तक फैले हरे-भरे खेत ....और छोटे-छोटे बच्चों  का साथ (जो हमारे साथ आरा से गए थे )  ने यात्रा का अहसास तक नहीं  होने दिया ....बहुत खुश होकर हम विद्यालय में दाखिल हुए ...भवन देखा तो अजीब सा लगा...बहुत पुराना तो नहीं था पर जगह-जगह दरारें आ चुकी थी...हालाँकि प्रांगन में ढेर सारे पेड़ों को देखकर हम खुश हो गए...अब बच्चों के बैठने की बारी थी..इसलिए हमने क्लासरूम का जाएजा लेना चाहा ..एक कमरे  में कदम रखा देखा एक तरफ बेंच रखे है और दूसरी तरफ जमीन पर बोरे बिछे हैं...दूसरे कमरे में गयी वहां  भी यही हाल...तीसरे, चौथे, पांचवे कमरे में तो एक भी 'बेंच' नहीं था...बोरा भी नहीं था (हाँ भाई,  आखिर कितना बोरा भला स्कूल खरीदेगा ??)  इसलिए बच्चे उसे घर से लाते थे ...झटका लगा ...अबतक गाँव के स्कूलों के  दुर्भाग्य की  गाथा सुना करती थी, आज देख रही थी...अपने बचपन में इस स्थिति की कल्पना मात्र से कितना डरती थी पर यहाँ के बच्चे, रोज उसका सामना करते है ...और बाकी साल उसपर बैठ भी जाये पर जब ठण्ड अपने चरम पर होती होगी तब ??  मन भर गया ...महोत्सव का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया ...सोच में पड़ गयी कि 'माँ'  के प्राईमरी स्कूल जाने के वर्ष के बाद से कितने साल गुज़र गए हैं , पर हालात अब भी ज्यों की त्यों हैं  ....क्या यही है इक्कीसवी सदी ?? सुनती हूँ कि सरकार शिक्षा पर बहुत ज्यादा खर्च करती है...फिर इन स्कूलों की ऐसी बदहाली क्यूँ?
                  बडहरा के गाँव पडरिया में स्थित मध्य विद्यालय

Comments

Narendra Mourya said…
गांवों के स्कूलों की यही हालत है। बेंच तो दूर की बात है, बुनियादी जरूरतें ही पूरी नहीं हो पातीं। खासकर बच्चियों को बहुत परेशानी उठानी पड़ती है। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश गांवों के स्कूलों को न छत दे पाया, न शिक्षक और न ही पानी और शौचालय तक। आपने अच्छा लिखा है। आपकी संस्था के बारे में भी जाना। अच्छा लगा आपकी टीम सक्रिय है और अच्छा काम कर रही है। बधाई और शुभकामनाएं। मैंने भी लंबे समय तक बच्चों के साथ काम किया है। अब लंबे समय से हिन्दी पत्रकारिता में हूं। कभी समय मिले तो सुमरनी पर जरूर आएं। http://sumarnee.blogspot.in/
@Narendra Mourya jee... सही कहा आपने .....प्रगति का आधार ही ख़त्म है और कहा जाता है कि हम विकास कर रहे...आश्चर्य तो ये कि गाँव के लोगो को इसमें कुछ गलत नहीं लगता...उन्हें तो जैसे इनकी आदत है ....