ख्वाहिशें

सुनो,
कभी ऐसा भी तो हो
कि इक सुबह
चल पड़े हम नंगे पांव घास पर,
बटोरे ढेर सारी ओस की बूंदे
कभी भींग जाये बरिशो में
गुनगुनाए एक गीत
चल पड़े
किसी ओर, कही भी
बस, हम और तुम
बैठे रहे इक नाव पर
करते रहे बातें
खामोशियो में
छत के उस कोने से
देखते रहें ढलता सूरज
साथ-साथ
कभी मैं बोलूं और तुम सुनो
सुनते रहो मुझे,
थामे हुए मेरा हाथ
इक आखिरी ख्वाहिश भी है
वह तो सुनो
कभी ऐसा हो,
कि तुम्हारी गोद में सिर रखकर
पढ्ती रहू 'अमृता' को
तुम गुनगुनाते रहो एक ग़ज़ल
और ...और
उस पल में ही
थम जाये सबकुछ
बंद हो जाये मेरी पलकें
हमेशा-हमेशा के लिये
........स्वयम्बरा
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