खेतो से दूर होते हम

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         दूर तक फैली थी हरियाली...बीच मे थे चटख पीले रंग के फूल...ऊपर से बरस रहा था गहरा नीला रंग..और किनारे था गंगा का सफेद निर्मल जल...एक वृहद रंगोली थी वो...जिसे अबतक न देखा था ना ही मह्सूसा था कभी..नतमस्तक थी उस महान कलाकार के सामने...अब किनारे खडे रहने का कोई मतलब नही था..उतर पडी मै भी रंगो के महासमंदर मे...दौड पडी...भागती रही...कभी सरसो के पौधो को निहारा ....कभी चने के साग को दुलराया... मटर की फलियो का ऐसा स्वाद होता है पहली बार जाना.....जी चाहा वही सो जाऊ धरा की गोद मे... ओढ लू उनका आंचल.....खूब रो लू....अपनी सारी गलतियो की माफी माग लू, जिसे जाने-अनजाने हम मनुज करते आ रहे है...पर नही.. कुछ नही किया बडप्पन का झूठा चादर ओढ लिया...और चुपके से खेत की मिट्टी उठाकर माथे से लगा लिया. 

हा से लौटते समय कई विचार उठने लगे..कि वसुंधरा हमारी हर इच्छा की पूर्ति करती है. हमारी क्षुधा मिटाती है. और हम उसी की सबसे ज्यादा उपेक्षा करते है...देखिये न कितने पास तो है गाव, खेत..इतना कि हाथ बढाकर छू ले पर हम तो उसकी ओर ठीक से देखते तक ही...सह्यात्री भर मानते है...या सैर-सपाटे की एक जगह..किताबो, अखबारो से किसानो के हालात की जानकारी लेते है...पर कुछ मीटर के फासले पर खेत जोतते इंसान से मिल नही पाते? हमारी शहरी जिंदगी मे उनकी समस्यायो का कोई स्थान नही..मिलियन मे कमा रहे पर खेतो से दूर हो रहे...प्रकृति से भाग रहे...सोचिये तो कैसी जिंदगी जी रहे हम? आखिर कैसी जिंदगी है ये? 

Comments

bahut sundar prastuti...meri hardik shubh kamanaye aapko...
bahut bahut shukriya Mohan Srivastava sir