एक थी तुम एक थी मैं


याद है न
तुम खुद सिला करती थी हमारे फ्रॉक
हमारा हेयर बैंड भी
हमें सजा-संवार कर निहाल हो जाती
तब मैं दुपट्टे ही लपेट लिया करती थी
तुम सी बनने की चाहत में
तुम्हारे ड्रेसिंग टेबल के सामने
लिपस्टिक पोत लिया करती
होठों के साथ पूरा चेहरा भी रंगीन कर लिया करती
गुड्डे-गुड़ियों को तैयार करती
कभी-कभी उन्हें डांट लगाती जैसे तुम ही हो जाती
हां, उन्हें लोरी भी सुनाती जैसे कि तुम हमारे लिए गाती
पर तब के दिन ऐसे भागे कि पकड़ाए नहीं पकड़ते

उम्र बढ़ी,
अनुभवो की बाढ़ ने जाने कैसे
तुम सी बनने की चाहत कम कर दी
उलझनों ने सब गडमड किया
जीवन-व्यूह ने उलझाकर रख दिया
बना दिया गुस्सैल, जिद्दी, अख्खड़
जैसे कि विद्रोह का अंधड़ हो
खुद को कुचल देने की मेरी ही साजिश हो
मेरे अंदर की तुम ख़त्म होती जा रही थी

तुम देखती चुपचाप
कभी-कभी बोल भी देती
रहने लगी एकाकी
इतनी कि एक अलग दुनिया बसा ली
अपने कल्पना लोक की
जहाँ तुम थी तुम्हारे बच्चे भी
और वह सारे सुख जो तुमने मेरे लिए चाहा
याद है उन दिनों बेसुधी में गाया करती
'रूनकी झुनकी बेटी मांगिला
पढल लिखल दामाद'
मैं झटकती-ये सच नहीं
तुम बिलख उठती-यही सच है
फिर फेर लेती मुंह
उंगलिया नाचने लगती और
मन की जाने कितनी परतों का हिसाब डायरियों में दर्ज़ करती रहती
समय-चक्र घूम गया
और जैसे कि
अबतक मैं एक भयावह सपना देख रही थी
अब जाग गयी
या कि वक्त ने थप्पड़ों की मार से मुझे होश में ला दिया
पर अब जो देखा तो
भूमिकाओं की अदलाबदली हो गयी थी
तुम 'मैं' बन गयी थी और मैं 'तुम'
तुमको सजा-संवार कर निहाल हो जाती
तुम्हारा मनुहार करती
हाथ में थाली लिए इधर से उधर भागती-
'खा लो एकाध कौर
देखो तो तुम्हारे पसंद की चीजें बना लायी हूँ'
सामने लगी फोटो की दुर्गा माँ से हर बार मनौती मांगती
बचा लो इस बार माँ, मेरी माँ को

तुम कहती माँए जीवन भर थोड़े रहती हैं
मैं कहती फिर साथ ही निकल चलेंगे उस पार
और एक बार चालाकी की
दोनों माओं ने मिलकर मुझे भेज दिया दूर, बहुत दूर
कि ये जिद्दी लड़की अपनी बात मनवा ही लेती है
तो फांस दो इसे ऐसे कि इस बार न लगा सके कोई गुहार
फिर तो सब आसान हुआ
तुम चली गयी बादलो के पार, सारे बंधनो से परे
इधर मैंने तुम्हे सब जगह तलाशा
तुम्हारे कपडे, तुम्हारी अलमारी, तुम्हारा पलंग
तुम्हारी कंघी और तुम्हारी डायरी में भी
तुम नहीं मिली, कहीं नहीं मिली
और मैं ऐसी जिद्दी कि फिर भी जीती रही
अब भी जी ही रही

सुनो, कल तुम्हारी साडी निकाली थी
वही रेशम की, हरे रंग वाली
तुम्हे पसंद थी न
पहना उसे मैंने भी..
फिर आईने में देखा..
ना नज़र का धोखा नहीं था
ना ही आँखे इतनी कमजोर हुई हैं
पर उस समय उस आईने में
मुझे मैं नहीं, सिर्फ तुम नज़र आयी
सिर्फ और सिर्फ तुम नज़र आयी माँ
सिर्फ तुम नज़र आयी
-----स्वयंबरा

(थोड़ी सी उदास हूँ...बस उसी कारण)

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