अकेला सूरज...बेचारा

सूरज...
प्रखर ...तेजस्वी...
तुम बिन जीवन नहीं..
पर कितना अकेला..
अक्सर जी चाहता है
कि माथा सहला दूँ....
पूछ ही लूँ - कैसे हो?
ठीक ठाक न?
खाना वाना हुआ?
सोए थे या रात भर भटकते रहे?

अरे कही बैठ भी जाया करो...
धरती के एक छोर से दूसरे छोर तक
आते-जाते थकते नहीं क्या..?
ऐसी भी क्या तरतीबी?
थोड़े बेपरवाह बन जाओ न....
थोड़े से ...बस अपने लिए...
कभी ठठाकर हंस दो
कभी रंग बिरंगे भी दिख जाओ
पश्चिम से भी उग सकते हो
सच में मज़ा आएगा...
एकरसता टूटेगी

वैसे एक बात तो बताओ
कभी प्रेम किया तुमने
या कि प्रखरता के गुमान में ही रहे
तेज के अहंकार में लिप्त
कि देखा नहीं अपने आस-पास भी
उन्हें जो बावरी बन बैठी हैं
वे जो नाचती रहती हैं हर पल
तुम्हारे ही चारो ओर, तुम्हारे लिए
बेसुध, बेख़बर, बेपरवाह होकर
जो तुमसे ही दमकती हैं
तुम्हें ही प्रतिबिंबित करती है
तुम्हें ही उच्चरित करती हैं
तुम्हारा ही ध्यान धरती हैं
और तुम सर्वोच्च होने के भ्रम में
कुछ नहीं महसूसते?
कुछ नहीं देखते?
सच में!

तो सूरज, सुनो
तुम्हारी सारी तेजस्विता के बावजूद
जीवनदाता कहे जाने के बावजूद
ऊर्जा के अजस्र स्रोत होने के भी बावजूद
तुम अभागे हो
सचमुच अभागे हो
कितने अभागे हो
......स्वयंबरा

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