भोजपुरी चित्रकला कोहबर
बिहार की लोकचित्रकलाओं में मधुबनी पेंटिंग और इसके कलाकारों की पहचान अंतर्राष्ट्रीय जगत में है, किंतु इसी सूबे के भोजपुरी क्षेत्र की लोकचित्रकला अपना वजूद कायम रखने के लिए संघर्षरत है. आम लोग इसे कोहबर तथा पीडिया के रूप में जानते हैं, जो त्योहारों या विवाह आदि अवसरों पर घर में बनाया जाता है. इस कला से भोजपुर प्रक्षेत्र का कोई घर अनभिज्ञ नहीं, बावजूद इसके, इसने चौखट लांघकर आगे बढ़ने का साहस अभी तक नही दिखाया है. जबकि सामाजिक जीवन से जुडाव को दर्शानेवाले इन चित्रों में लोक जीवन्तता के लगभग सभी रंग दीखते हैं।
'कोहबर' भोजपुर जनपद की महिलाओं द्वारा बनाया गया एक भित्तिचित्र है, जिसे विवाह के अवसर पर वर -वधु के कमरे में बनाया जाता है. परंपरा ये है की इसे घर की बेटियां या बहुएँ ही बनाती है . 'कोहबर' रंगने के कुछ नियम हैं ..इसे परम्परानुसार ही बनाया जाता है .....यद्यपि हमारे देश में कई जगहों पर भित्तिचित बनाये जाते है पर कोहबर में प्रयुक्त ज्यामितीय आकृतियाँ व रंग इसे अन्य भित्ति चित्रों से अलग करते है. जनपद में ही गंगा के उत्तरी एवं दक्षिणी हिस्से में बनाए गए कोहबर की आकृतियों तथा रंग प्रयोग में अन्तर आ जाता है.
रंगों में कही गेर का प्रयोग होता है, तो कही गेर, चंदन, हल्दी, चावल का आटा, फूलों का रस आदि द्वारा रंगीन 'कोहबर' बनाया जाता है. 'कोहबर' के चित्र सामान्यतः सुखद दाम्पत्य जीवन एवं सांसारिक क्रियाकलापों को प्रतीकात्मक रूप में दर्शाते हैं, जिसमे वर-वधु के सुंदर भविष्य की कामना छिपी होती है. इसे बनाते समय हर औरत गा उठती है-
"कौशल्या माता कोहबर लिखेली हो,
बड़ा ही जतन से
गंगा- जमुनावा के बिछावन करेली हो,
बड़ा ही जतन से"
'कोहबर' में सबसे पहले दीवार पर चंदन का लेप लगाकर गणेश भगवान् की स्थापना की जाती हैं, फ़िर सात देविओं के प्रतीक के रूप में सात पिंड बनाकर, उसे लाल कपडे से ढक कर उसपर सिंदूर का टीका लगाया जाता है. इसके नीचे मोटे सूत को गेर में रंगकर, लगभग ढाई फीट लम्बा और लगभग दो फीट चौड़ा आयताकार आकार, बनाया जाता है. इस आयत की बाहरी रेखाओं को कंगूरे, लताएँ, शंख, फूल व विभिन्न रेखाकृतियों से सजाया जाता है. आयत के अन्दर ज्यमितिये आकार के विभिन्न प्रकार के प्रतीक चिह्न बनाये जाते है, जो विशेष अर्थ देते हैं. 'पालकी' वर-वधु का, 'बांस' वंश बढ़ने का, 'स्वास्तिक' शुभ का, 'कजरौटा' बुरी नजर से बचने का, 'मछली' मैथुन का, 'आईना' श्रृंगार का, 'पुरईन का पत्ता' परिवार संतान का, 'सिन्दूर' सुहाग का, 'कमल' परम्परा का, 'शिवा माई' देव आशीष का, 'घोडा' सुखद दाम्पत्य का प्रतीक होता है.
'कोहबर' को पहचान दिलाने का स्थानीय कलाकारों द्वारा प्रयास किया जा रहा है. इसमें मिटटी की सोंधी महक है तो प्रयोग की असीम संभावनाएं भी है. इनमे ऐसी क्षमता है कि ये अंतर्राष्ट्रीय फलक पर छा जाएँ . किंतु संरक्षण के अभाव में ये कला अपने आप को बचाए भी रख पाएंगी , ऐसा नहीं दीखता.
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