भूले बिसरे लोक खेल
बचपन ........मस्ती शरारतो एवं जिज्ञासाओं से भरी बेपरवाह उम्र..... ना कमाने की फिक्र होती है न ही जिन्दगी जीने की चिंता... न ही जिन्दगी की सच्चाईयों का सामना करने की जरूरत ....अगर कुछ होता है तो सिर्फ खेल.... खेलो की दुनिया ही बच्चो की वास्तविक दुनिया होती है....
कभी खेल प्रकृति की गोद में खेले जाते थे.... इनकी मस्ती का आलम ये था कि बच्चे बिल्कुल उन्मुक्त होकरखिलखिलाते थे.... इनमे सामान्य लोक खेलो के अलावा मौसमो के खेल भी थे....यहाँ तक कि ' चिढाना' भी एक खेल ही होता था...जब बच्चो की भीड़ किसी चिढनेवाले बूढ़े को देखती तो समवेत स्वर में गाने लगती...
" बुढवा बेईमान मांगे करेला के चोखा"
गाँव में कोई नई दुल्हन आती तोपिचा-पीछे लग जाती बच्चो की टोली ......
"ऐ कनेवा ,
दुगो धनिया द,
लाल मरचाई के फोरन द"
किसी नंग-धरंग बच्चे को देखा और चिढाना शुरू........
"लंगटा बे लंगटा ,
साग रोटी खो ,
गधा प् चढ़ के बियाह करे जो "
मौसमो के भी खेल हुआ करते थे। बरसात आई। बूंदे बरसने लगी। सूखने के लिए रखे गए उपले या कहे तो गोइठे भींगने लगे ....घर की बूढी औरते दौड़-दौड़ कर इन्हे उठाने लगी... इसे देखकर बच्चो का मन कैसे चुप रहता..वह गा उठा......
"आन्ही-बून्ही आवेला,
चिडिया ढोल बजावेला,
हाली हाली बुढिया माई
गोइठा ऊथावेली"
सावन के काले काले मेघ फुहारे बरसा रहे हैं। चारो और हरियाली छाई है । ऐसा मौसम खेल का ही तो होता है। बच्चो की टोली एक-दूसरे का हाथ पकड़कर चक्कर लगाने लगती है ....गाना शुरू हो जाता....
"चकवा चकईया , हम तुम भइया
भइया के बियाह में, चार सौ रुपिया"
जब झमाझम बरखा होने लगी तो बधार में खेलना मुश्किल हो गया...अब तो बादल को भगाना जरूरी हो गया....
"एक पैसा लाइ ,
बाज़ार में छितराई
बरखा ओनिहे बिलाई"
अब जाड़े का मौसम आया। ऐसे में 'माँ के अंचल' में दुबककर सोना हो या 'आग तापना'... जिन्दगी का सबसे सुनहरा पल बन जाता है....जाड़े की धूप पाना भी खेल का हिस्सा बन जाता था... जहाँ किसी ने दुसरे ने आपके हिस्से की धूप को छेका की हल्ला शुरू ...........
"घाम छेके घमरा ओकर बाप चमरा"
इन खेलो में आज की तरह दिखावा नही था। बच्चे तनावमुक्त होकर खेलते थे। पर अब तो ये खेल अतीत की कब्र में दफ़न हो गए है, जिनकी सिर्फ़ यादे ही बाकि है. उस दौर के खेल ऐसे थे जो बच्चों में सामाजिक बोध का अहसास भी खेल-खेल में ही करा दिया करते थे.... सामूहिकता की भावना पनपती थी...अपनत्व, भाईचारा जैसे मूल्यों का समावेश भी यूँ ही हो जाया करता था ...हालाँकि आज गाँव-गाँव में विकास हो रहा है..पर दूसरी तरफ बच्चो के ये खेल लुप्त होते जा रहे है.... गाँव में भी क्रिकेट और आई टी क्रान्ति सर चढ़कर बोल रहा है....जो हमें 'व्यक्तिगत' या 'एकाकी' बनना अधिक सिखाता है.. इन खेलो से बच्चो को जो अपनापन स्नेह और संस्कार मिलता वो उनके मानसपटल पर आजीवन अंकित रहता... आज ना जाने कहा खो गए वे खेल...हालाँकि उन खेलो की मिठास अब भी कही बाकि है।
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