यादें

पापा को गुज़रे 6 साल हुए...
मम्मी को गए डेढ़ साल...

पर आज भी वह कमरा, मम्मी का कमरा है, खानेवाली बड़ी थाली पापा की...जो बड़ा सा चमकदार ग्लास है न वह पापा का...एक जग भी था सिर्फ पापा का, जो कुछ दिनों पहले फूट गया...

मम्मी की थाली अब भी है उनमे मैं खाती हूँ...ग्लास कही खो गया...आलमारी भी मम्मी की जिनमें, साड़ियां संभाल रखीं है...उन्हें अब मैं पहन लिया करती हूँ...

मम्मी का कमरा बैठक बन गया है...पर हमारे जेहन में वह मम्मी का कमरा ही है, जिसमें मेहमान आ बैठते हैं....अक्सर निगाह जाती है पलंग पर जहां वो सोयी होती थीं...पता न क्यों पर उनकी पुकार भी हमेशा सुनाई देती है...

लोग चले जाते हैं ....
क्या सचमुच?...
उह...लोग कहीं नहीं जाते...बस रूप बदलकर 'याद' बन जाते हैं...ताकि ताउम्र हम छटपटाते रहें..

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