पापा मेरे पापा

वो दिन गर्मियों के थे।
लू चलने लगी थी। मीठे-मीठे आम मिलने लगे थे । स्कूल की छुटियाँ हो गईं थीं। अब मेरे पास पूरा एक महीना था, धूम मचाने के लिए। खेलने के लिए। शैतानी करने के लिए।

ऐसे तो हर शाम मोहल्ले भर के बच्चों की जमघट छत पर लग जाती और खूब धमाचौकड़ी मचती। पर छुट्टियों की बात ही निराली होती है। स्कूल जाने का झंझट ही नहीं ।रूटीन लाइफ से मुक्ति।रोज-रोज की चिक-चिक से पूरी आज़ादी। अब तो बस खेल, खेल और खेल।

पर घर के बड़े हमारी इस आज़ादी से जलते थे। वो इन ख़ूबसूरत छुट्टियों में भी हमें बांधकर रखना चाहते थे।
"बाहर नहीं निकलना है।"
" लू लग जाएगी।"
"होमवर्क पूरा करो।"
"घर में ही खेलो।"
(अब घर में कोई खेलता है क्या)

वो हमें हमारी आज़ादी देना ही नहीं चाहते थे(उस वक़्त लेकर रहेंगे आजादी वाली बात प्रचलन में नहीं थी, नहीं तो हम भी आवाज़ बुलंद करते)। विशेष तौर पर पापा। उनके कोर्ट की भी छुटियाँ हो गईं थीं। वो भी घर पर ही रहते। बुलंद स्वर में आदेश जारी हुआ कि घर से बाहर (छत पर भी) शाम को ही निकलना है। दोपहर का खाना खाने के बाद एक घंटा आराम करना है।और उसके बाद पढ़ाई करनी है। तो तय हुआ कि दोपहर में बस्ता लेकर पापा के पास बैठ जाना है।शाम तक पढ़ाई चलती। फिर छत पर जाने का मौका मिलता।

एक दिन की बात है पढ़ाई होते-होते शाम हो गयी। दोस्त आ गए। पापा गणित समझा रहे थे (असल में कमजोर थी उसमें)। पापा ने उन्हें  जाने को कह दिया और मुझे बिठाए रखा। अब मुझे व्याकुलता ने घेर लिया। बेचैनी की हद हो गयी। गणित के सारे सूत्र, जोड़-घटाव सर के ऊपर से निकलने लगे।
"सारे दोस्त छत पर खेल रहे और मैं यहाँ पढ़ रही। लानत है मुझपर।"
अब दिमाग चलने लगा। कैसे यहाँ से निकले। पापा से कहा बाथरूम जाना है। पापा बोले जाओ। तो गयी बाथरूम, फिर सीधे छत पर।

खूब इतरा रही थी, अपनी चालाकी पर। खेल शुरू हुआ। दौड़ा-दौड़ी, पकड़ा-पकड़ी। विशेष तौर पर कबड्डी, जो बेहद पसंद था। थोड़ी थकान हुई तो वहां एक पुरानी, लकडी की बनी आराम कुर्सी थी, उसपर बैठ गयी। गप्प का दौर शुरू हुआ। खूब मस्ती हो रही थी कि अचानक मेरी बीचवाली ऊँगली दो लकड़ी के बीच लगे पेंच में  फंस गयी। पहले आराम से कोशिश की निकालने की। नहीं निकली। दोस्तों ने कोशिश की। नहीं निकली। अब मेरी परेशानी बढ़ने लगी। रुआंसी हो गयी। दोस्तों ने सबको पुकारा। मम्मी और अम्मा (दादी) दौड़े-दौड़े आयीं। उन्होंने भी कोशिश की। अबतक मेरी ऊँगली से खून निकलना शुरू हो गया था। दर्द भी अपने चरम पर पहुँच गया। मैंने जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया। आवाज़ सुनकर पापा आये। उन्होंने सुपर मैन की तरह काम किया। पता न कैसे कुर्सी को मोड़ा और ऊँगली एकदम से निकल गयी। अब तो और जोर का रोना आया। पापा से चिपककर देर तक रोती रही।

चुप हुई तो पापा ने कहा - "बेटा, पापा-मम्मी से झूठ नहीं बोलना चाहिए। देखी न क्या हुआ।"

ये बात धक्क से लग गयी। ऐसी लगी कि अब तक लगी हुई है। बड़े होने पर भी यही माना कि पापा-मम्मी से झूठ बोलने की सजा ईश्वर देता है। उसके बाद याद नहीं कि बचपन में या बड़े होने के बाद भी, फिर कभी किसी बात के लिए इनसे झूठ बोला। किसी-किसी गलती के लिए खूब डांट खाती रही। गुस्सा भी आता रहा। पर बचपन की यह बात कभी भूल नहीं पायी। पापा का कहा वह वाक्य पैठ गया है मन में। अब तो मृत्यु तक यह न निकले।
----स्वयंबरा

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